Tuesday, August 29, 2017

मशीनी पुर्जा धड़कता है




दिल के लाचार इक शख्स में

मशीनी पुर्जा धड़कता है ,

पथराई पलकें , निस्तेज होठ

और ठहरी हुई आँखें

ना जाने ये वक़्त क्यूँ नहीं ठहरता है

बंद अस्पताली कमरे में ,

क्या कोई ख्याल उस

शख्स के मन में पलता है

गुजश्ता ज़िंदगी के हसीं लम्हो

के सहारे वो मशीन पे जीता है

ये कैसा इंतज़ार है कैसी आस है

खेत सी ज़िंदगी में ज़रीब सांस है

कब टूट जाये , कुछ खबर नहीं

सब है मगर, आज कुछ नहीं साथ है
 
 
                             प्रवेश दीक्षित "तल्ख़ "

Tuesday, August 22, 2017

थोड़ी सी बेगारी कर लें




अम्बर की पगडण्डी पे ,

हवा की सवारी ले कर

चंदा की सैर कर लें

सूरज की सैर कर लें   

 

खाली है जेब तेरी ,

और खाली है पेट

हवा का कलेवा कर ले

पानी से पेट भर ले

 

कर दिया है शुरू अब

जूतों ने मुँह खोलना

कि घिसने लगें हैं पांव
थोड़ी सी बेगारी कर लें
        थोड़ी सी बेगारी कर लें............

Monday, November 17, 2014

सारा जहाँ सो गया जब....



सारा जहाँ सो गया जब ,
मैं जागता रहा , क्यों
इस भीड़ में मैं खो गया, क्यों ?
कहने को तो है , इक दूसरे से ,
प्यार सबको। 

जब वक़्त आया तो सबने  किनारा किया ,
किस के घर में क्या छिपा है ,
अब बस यही आस है ,
पेट सबके भर गए जब ,
बाकी केवल 'चाह' है।

                        प्रवीश दीक्षित'तल्ख़'

वो मेरे क़रीब से .....



वो मेरे क़रीब से ,
कुछ यूँ गुजर गया।
आहटें कदमों की
इस दिल को दे गया।।
धड़कनों का कारवां ,
निकल पड़ा मंज़िलों की तलाश में।
मंज़िल पे उसे पाया ,
तो जाना फ़क़त छलावा था
'दयार' में।।  

              प्रवीश दीक्षित'तल्ख़'

अँधेरा साया गहराता रहा ,



अँधेरा साया गहराता रहा ,
इक शख्स राह में
ठोकर खाता रहा।
गहराते अंधेरों में उसे
उसे कोई मुकाम ना मिला।।

रोशनी मिल भी जाती उसे ,मगर
रात आसमां को चाँद ना मिला।
सितारे कसमसाते रहे तमाम रात
की उसे वो मदद करें ,
मगर ,रात ज़मीं पे ,
उसका नामो निशां ना मिला।।

सर्द हवाओं ने ,थाम लिया
दामन इस कदर ,रात का।
की किसी ठन्डे जिस्म को  ,
अंगार का साथ ना मिला।।

ये हमारी ज्यादती का ही ,
सबक है 'तल्ख़' शायद।
की सर छिपाने को  ,
कुदरत का साथ भी ना मिला।।

                            प्रवीश दीक्षित'तल्ख़'

Monday, July 7, 2014

इक नया रंग फ़िज़ा में.......



इक नया रंग फ़िज़ा में घुल गया.
ये गोरा बदन अब ताम्बई हो गया। 
क्या हुआ, कैसे हुआ हमें क्या खबर
की ये वक़्त भी आसमानी हो गया।।
घुले हुए थे, साये अंधेरों में अब तलक.
उनका वजूद अब जिस्मानी हो गया ।
 
गम-ए-ज़िंदगी से तौबा कर लो ऐ 'तल्ख़'
ये आगाज़ है अब गम बेमानी हो गया।।
 
अकेले ही चले थे राहे सफर में मगर
तुम जब मिले सफर रूमानी हो गया।।

प्रवीश दीक्षित 'तल्ख़'

Friday, August 16, 2013

ख्याल ने खामोशियों को.....




ख्याल ने खामोशियों को

ओढ़ लिया है  इस तरह ,

हम हैं की फ़क़त

झींगुरों के इजहार सुने जा रहे हैं

कोई चुप है तो कोई सुन रहा है ,

कोई थम गया तो कोई चल रहा है!

आज हर शख्स अपाहिज है

इंसान , रास्ते और मंजिलें ,

वक़्त चल रहा है , तब वहां था, अब वहां है

नादान है वो सब जो जीत पे इतराते हैं

देख वक़्त फिर वहीँ खड़ा हंस रहा है

तूफ़ान तो आकर गुजर ही जाते हैं अक्सर ,

बर्बादी की दास्ताँ कहने को साहिल खड़ा है
 
प्रवीश दीक्षित'तल्ख़'