ख़ामोशी छोड़ कर चले गए जो हैं , लम्हे ,
बज़्म में वो लौट कर अब नहीं आने वाले !!
तुम्हारी नादानियों से टूट गए जो खिलौने,
इन कमजोर कोशिशों से नहीं जुड़ने वाले !!
दिल से मिट चुके हसीं यादों के जो मंजर,
इन पनीली आँखों से कभी नहीं जाने वाले !!
सोचा तुम्हे पुकार लें करीब जाकर, लेकिन ,
हलक में घुटे लफ्ज़ जबां पे नहीं आने वाले!!
वफ़ा की आस में हमें रुसवाई मिलती रही
दिल में लगे दाग अब यूँ नहीं मिटने वाले !!
इस तंगदिली को हम क्या नाम दें ' ऐ तल्ख़'
ज़फाबाजी के इलज़ाम भी हैं अब लगने वाले !!
खानाबदोशों की महफ़िल है ये दुनिया तमाम
फिर से ये मजमे तमाशे हैं यहाँ सजने वाले !!
प्रवीश दीक्षित 'तल्ख़'