Monday, November 17, 2014

सारा जहाँ सो गया जब....



सारा जहाँ सो गया जब ,
मैं जागता रहा , क्यों
इस भीड़ में मैं खो गया, क्यों ?
कहने को तो है , इक दूसरे से ,
प्यार सबको। 

जब वक़्त आया तो सबने  किनारा किया ,
किस के घर में क्या छिपा है ,
अब बस यही आस है ,
पेट सबके भर गए जब ,
बाकी केवल 'चाह' है।

                        प्रवीश दीक्षित'तल्ख़'

वो मेरे क़रीब से .....



वो मेरे क़रीब से ,
कुछ यूँ गुजर गया।
आहटें कदमों की
इस दिल को दे गया।।
धड़कनों का कारवां ,
निकल पड़ा मंज़िलों की तलाश में।
मंज़िल पे उसे पाया ,
तो जाना फ़क़त छलावा था
'दयार' में।।  

              प्रवीश दीक्षित'तल्ख़'

अँधेरा साया गहराता रहा ,



अँधेरा साया गहराता रहा ,
इक शख्स राह में
ठोकर खाता रहा।
गहराते अंधेरों में उसे
उसे कोई मुकाम ना मिला।।

रोशनी मिल भी जाती उसे ,मगर
रात आसमां को चाँद ना मिला।
सितारे कसमसाते रहे तमाम रात
की उसे वो मदद करें ,
मगर ,रात ज़मीं पे ,
उसका नामो निशां ना मिला।।

सर्द हवाओं ने ,थाम लिया
दामन इस कदर ,रात का।
की किसी ठन्डे जिस्म को  ,
अंगार का साथ ना मिला।।

ये हमारी ज्यादती का ही ,
सबक है 'तल्ख़' शायद।
की सर छिपाने को  ,
कुदरत का साथ भी ना मिला।।

                            प्रवीश दीक्षित'तल्ख़'