Friday, February 25, 2011

पर्दा नशीं


पर्दानशीनों की महफ़िल में , सभी जुदा-नकाब हैं,
हम अनजान होकर भी , बड़ी पहचान रखते हैं।

तुम हमसे दूर रहते हो हम तुमसे दूर रहते हैं ,
तुम्हे हर बार छूने का , हम अहसास रखते हैं।

बड़े मशहूर हैं किस्से तेरी एय्यारी के ज़ालिम ,
हकीक़त मेरी भी लेकिन , फ़साने साथ रखती है।

हमें तुम ढूँढना चाहो ,ये मुमकिन नहीं शायद ,
हवा में घुल जाने का , हुनर हम साथ रखते हैं।

हमें महसूस करके तुम, हमारी चाह समझ लेना,
मिटा कर इस बदन को , अब रूह तेरे नाम करते हैं।



प्रवीश दिक्षित

फिर से शायद




इन सुलगते अंगारों को सहेज कर रखना ,
की कहीं ये सर्द रातें और लम्बी हों शायद।

सारी ताक़त अपनी बाजुओं में समेटें रखना ,
की फिर से वतन को तुम्हारी ज़रूरत पड़े शायद।

इन दरख्तों को अब कटने से बचाए रखना ,
की कल फिर यहाँ धूप तेज पड़े शायद।

तुम अपनी आँखों को अब खुली ही रखना,
की ये मंजर अब और खराब हों शायद ।

इन साहिलों की हदों को और कस के रखना,
की फिर से कोई तूफां यहाँ दस्तक दे शायद।

प्रवीश दिक्षित