इक धारा अलबेली ,
चली निपट अकेली !
झरनों का आलिंगन ,
परबत से अठखेली !
आड़ी टेडी राहों से ,
चली भरने ,धरती की झोली !
सागर से मोहब्बत और ,
साहिल से ठिठोली !
जैसे नई नवेली कोई
सोलह श्रंगार किये ,
पिया को रिझाने चली!
जंगल प्यासे,
किन्जिल प्यासे,
प्यासे पशु पखेरू
गांव भी प्यासे
शहर भी प्यासे
प्यासे सब नर नारी !
बल खाती ललना सी ,
इठलाती चपला सी ,
राह में आये
सभी दर्प हटाने चली !
ये दरिया की हमजोली ,
सब के दरद मिटाने चली !!
प्रवीश दिक्षित 'तल्ख़'