आबो हवा में आज कल ख़ास तबदीली है,
मेरा अक्स मेरे रूबरू है, आईना खाली है !!
ये झुलसती राहें है और हम सफ़र में हैं,
साँसे अंगार हैं , और पेट , पांव खाली है !!
छूएं भी तो कैसे , इन तपती मंजिलों को ,
दहक रही हैं दीवारें , और मशक खाली हैं !!
शैतानियत सी सवार है हर एक शख्स पे,
खुदा बचाए , घर में दरवाजा है ना जाली है!!
जिस जिस कि जुबान पर 'ख़ुदा' था कभी ,
आज हर हाथ में खंजर , जुबां पे गाली है !!
शहर मरघट है या क़यामत है ,' ऐ तल्ख़', ,
जिंदा लाशें सड़क पे हैं, तमाम कब्र खाली हैं
प्रवीश दीक्षित 'तल्ख़'