कोई कसर बाकि न रखी , तुमको पा लेने की मैंने ,
कि हर गुजारिश ने दम तोड़ दिया , आज तेरे आगे ।
कोई वजहात भी न थी , जो तुझसे जुदा था मैं ,
कि न जाने क्या गुनाह था , और कैसी सज़ा थी ये ।
बदगुमानी ने जो तन्हाई का तोहफा दिया है ,
कि अक्सर गुफ्तगुं होती रही , मेरी खामोशियों के साथ।
अब तो घुट गई है आवाज भी हलक में ,
कि कैसे बयां करूँगा मैं दीवाना -ऐ-हाल आज ।
वक्त कि तपिश के शिकार अकेले नही हैं हम ,
कि फैली पड़ी है राख , शहर-ऐ-तमाम में ।