एक वैचारिक अकाल सा मचा है,
इंसानी दिमाग में.
सोच की जमीं दरकने लगी है,
और खयाल मरने लगे हैं !
इंसानी दिमाग में.......
लफ्ज़ आकार बदलने लगे हैं
अब गालियों की शक्ल में
अपनों को कोसने लगे हैं
ये क्या चल रहा है
इंसानी दिमाग में .....
अदीब अब महज किताबी अदीब हैं
कातिब हर्फों से जंग करने लगे हैं
सफों के जंगे मैदान में
ये क्या बदल रहा है
इंसानी दिमाग में.....
लफ़्ज़ों के कीचड़ में सराबोर है,
आज हर आम ओ ख़ास ,
मासूम चिलमनों में लग रहे हैं
अब घिनोने दाग, ये क्या हो रहा है
इंसानी दिमाग में......
प्रवीश दीक्षित "तल्ख़"