बड़ी चाहत थी हमारी , जहाँ में कभी अपना एक मकां बनाये ,
अब तो नही मयस्सर साँस लेना भी इस जहाँ में ,
यहाँ शहर जल रहे हैं ,शोले कहीं नही हैं
दम घुट रहा है सबका लेकिन धुआं नही है,
दिल में लगी है आग , खामोशी जल रही है ,
ख़ुदमुख्तरी को मिटाकर , खुदगर्जी फल रही है,
खुशियों का शमशान है ये जहाँ , जिस पे ...
इंसानियत की चिता पे बैठी हैवानियत हंस रही है.