ऐ मेरे रकीब , तुम क्यों हबीब बनते हो ,
ज़फाओं की दलदल है मेरा दिल , क्यों मोहब्बत गर्क करते हो।
मैं दर्द -ऐ-वक्त का मारा हूँ , ऐ मोहब्बत ,
कि कोई निशां बाकी न रहा ,जिन्दगी पे चोट का।
तेरी हमसफर्गी ना हो सकेगी नसीब मुझे,
मेरी उल्फत 'तन्हाई ' से है , तू साथ रहे न रहे।
ग़मों की डोर सिमटी है , मेरे दर्द की चरखी में ,
कि पतंग-ऐ-इश्क उडेगी न तेरी ,हुस्न-ऐ-हवा चले न चले।
न कोई हमदम ना साथी मेरा , तुने अपना बनने की ठानी,
कि मैं 'सन्नाटों ' का तलबगार हूँ ,ये मजमा-ऐ-जहाँ रहे न रहे।