Monday, July 7, 2014

इक नया रंग फ़िज़ा में.......



इक नया रंग फ़िज़ा में घुल गया.
ये गोरा बदन अब ताम्बई हो गया। 
क्या हुआ, कैसे हुआ हमें क्या खबर
की ये वक़्त भी आसमानी हो गया।।
घुले हुए थे, साये अंधेरों में अब तलक.
उनका वजूद अब जिस्मानी हो गया ।
 
गम-ए-ज़िंदगी से तौबा कर लो ऐ 'तल्ख़'
ये आगाज़ है अब गम बेमानी हो गया।।
 
अकेले ही चले थे राहे सफर में मगर
तुम जब मिले सफर रूमानी हो गया।।

प्रवीश दीक्षित 'तल्ख़'