इन महफ़िलों से किनारा कर लें ' ऐ तल्ख़'
फिर से खामोशियाँ तुम्हे पुकारने लगी हैं !
ये नकाबी चेहरों की , तंगदिल बस्ती है ,
यहाँ जिन्दगी बिताना मुमकिन नहीं
की फिर कब, कहाँ , किस मोड़ पे तुमसे मिलूं ,
ऐ दिल , बस यही रस्मे इंतज़ार अब बाकी है !!"
मैं ज़फ़ा करता नहीं मगर मेरी भी हद है ,
की मैं इक लम्हा हूँ ,लौट कर आता नहीं !
मेरा इंतज़ार न करना , ऐ मेरे हमनवां,
कहीं तेरा ज़ज्बा , मेरा गुनाह बन जाये !!
प्रवीश दीक्षित 'तल्ख़'