इन महफ़िलों से किनारा कर लें ' ऐ तल्ख़'
फिर से खामोशियाँ तुम्हे पुकारने लगी हैं !
ये नकाबी चेहरों की , तंगदिल बस्ती है ,
यहाँ जिन्दगी बिताना मुमकिन नहीं
की फिर कब, कहाँ , किस मोड़ पे तुमसे मिलूं ,
ऐ दिल , बस यही रस्मे इंतज़ार अब बाकी है !!"
मैं ज़फ़ा करता नहीं मगर मेरी भी हद है ,
की मैं इक लम्हा हूँ ,लौट कर आता नहीं !
मेरा इंतज़ार न करना , ऐ मेरे हमनवां,
कहीं तेरा ज़ज्बा , मेरा गुनाह बन जाये !!
प्रवीश दीक्षित 'तल्ख़'
बहुत खूब ... हर शेर लाजवाब ... क्या बात है ...
ReplyDeleteशुक्रिया जनाब......
ReplyDeleteलाजवाब रचना!!!
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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धन्यवाद श्रीमान , रचना पसंद करने हेतु ...
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