अँधेरा साया गहराता रहा ,
इक शख्स राह में
ठोकर खाता रहा।
गहराते अंधेरों में उसे
उसे कोई मुकाम ना मिला।।
रोशनी मिल भी जाती उसे ,मगर
रात आसमां को चाँद ना मिला।
सितारे कसमसाते रहे तमाम रात
की उसे वो मदद करें ,
मगर ,रात ज़मीं पे ,
उसका नामो निशां ना मिला।।
सर्द हवाओं ने ,थाम लिया
दामन इस कदर ,रात का।
की किसी ठन्डे जिस्म को ,
अंगार का साथ ना मिला।।
ये हमारी ज्यादती का ही ,
सबक है 'तल्ख़' शायद।
की सर छिपाने को ,
कुदरत का साथ भी ना मिला।।
प्रवीश दीक्षित'तल्ख़'
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