दिल के लाचार इक शख्स में
मशीनी पुर्जा धड़कता है ,
पथराई पलकें , निस्तेज होठ
और ठहरी हुई आँखें
ना जाने ये वक़्त क्यूँ नहीं ठहरता है
बंद अस्पताली कमरे में ,
क्या कोई ख्याल उस
शख्स के मन में पलता है
गुजश्ता ज़िंदगी के हसीं लम्हो
के सहारे वो मशीन पे जीता है
ये कैसा इंतज़ार है कैसी आस है
खेत सी ज़िंदगी में ज़रीब सांस है
कब टूट जाये , कुछ खबर नहीं
सब है मगर, आज कुछ नहीं साथ है
प्रवेश दीक्षित "तल्ख़ "
Greetings from the UK. I enjoyed reading.
ReplyDeleteThank you. Love love, Andrew. Bye.
Thanku so much
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