न जाने क्यों आजकल
सब भूलने लगा हूं मैं,
बेढब यादों की कतरनों में खोने लगा हूं मैं ।आयु का अर्धशतक
जीवन के पिच पर लगा लिया मैने,
कुछ पाने के औसत से पिछड़ने लगा हूं मैं।
जिंदगी में अपनों के
कुछ कर्ज है मुझ पर,
जिन्हें चुकाने से बचने लगा हूं मैं।
ज़हन की हलचलें
अब सोने नहीं देती ,
की जागते हुए ख्वाबों में खोने लगा हूं मैं।
ज़िस्म की हसरतें भी
अब रूआब खोने लगी,
कि अपनी ही रूह से दूर होने लगा हूं मैं।
मायने बदल गए हैं
चाहते आरजू ओ अंदाज के,
की तूफानी था कभी अब फानी होने लगा हूं मैं।।
प्रवीश दीक्षित 'तल्ख'
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