साहिलों को तोड़ के , शहरों को मिटा दे जो ,
सुख गई नदियों की , ऐसी रवानी देखी है !
हदों को तोड़ के , मौत को जीत लाएं जो ,
कमसिनों में वो जोश-ओ-जवानी देखी है !!"
चीर के दरख्तों को , जो दो फाड़ कर दे ,
इस धरा पे भीम सी , वो हौसलाई देखी है!
तुम कमज़ोर नहीं हो इस जहाँ में ऐ दोस्त ,
तुममे दहकते अंगारों कि इक कहानी देखी है!
हिला दे ये दुनिया , कदम की एक ठोकर से,
जवानों , तुम में वो ताक़त अनजानी देखी है !
कौन कहता है 'क्रांति' हो नही सकती ऐ 'तल्ख़',
फिर से शोख़ हाथों में , वो 'तलवार पुरानी' देखी है
सुख गई नदियों की , ऐसी रवानी देखी है !
हदों को तोड़ के , मौत को जीत लाएं जो ,
कमसिनों में वो जोश-ओ-जवानी देखी है !!"
चीर के दरख्तों को , जो दो फाड़ कर दे ,
इस धरा पे भीम सी , वो हौसलाई देखी है!
तुम कमज़ोर नहीं हो इस जहाँ में ऐ दोस्त ,
तुममे दहकते अंगारों कि इक कहानी देखी है!
हिला दे ये दुनिया , कदम की एक ठोकर से,
जवानों , तुम में वो ताक़त अनजानी देखी है !
कौन कहता है 'क्रांति' हो नही सकती ऐ 'तल्ख़',
फिर से शोख़ हाथों में , वो 'तलवार पुरानी' देखी है
प्रवीश दीक्षित 'तल्ख़'
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