स्वप्न हो या तुम मेरी कल्पना ,
या मृदु सत्य हो बतलाओ ।
नित आती हो शांत निशा में ,
चित्त मेरा उत्प्रेरित करती ॥
नैनोकी तिरछी चितवन से ,
घायल हमको कर जाती हो ।
मेरे मानस के उपवन में ,
बन मदमस्त सुंदरी इठलाती ॥
नित्य सताती निशास्वप्न में ,
अब दिवास्वप्न में भी दिखती ।
तुमको पाने की अभिलाषा ,
मन उपवन में करवट लेती ॥
विचलित हूँ , मैं इस विचार से ,
यथार्थ नही तुम अपूर्ण सत्य हो।
मेरे सपनों के खाके में ,
खिंचा हुआ तुम एक चित्र हो॥
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