दिल की चीरफाड़ से ,क्या हांसिल उन्हें
वो मेरे भोले सनम यह भी नहीं जानते !
ज़र्रा दर ज़र्रा, रग दर रग, टटोले जाते हैं
आरजू ओ तलाश क्या, ये भी नहीं जानते !
ज़ज्बे दिल में बने, आंखों से बयां होते हैं
पढ़ भी लेते, मगर रूबरू होना नहीं जानते !
सफों पे हर्फों से गुफ्तगू का है शौक उन्हें
ये कातिब राज ऐ दिल पढना नहीं जानते !
नज़र ये मिल भी जाए तो झुका लेते हैं" तल्ख़"
की मेरे कातिल , क़त्ल करना भी नहीं जानते !!
ढाई हर्फ़ के खेल को जो समझा, जहाँ पाया
उल्फत क्या होती हैं मेरे महबूब नहीं जानते !!
प्रवीश दीक्षित " तल्ख़"
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