किसी की ख़ामोशी के सदके
ये अजब सी वार फेर है !
कि शोर ने समझी है,
आज जुबां सन्नाटों की !
एक मचलते सुर ने आज
वीरान साज़ पे इनायत की है!
कि इन खामोश तरानों को ,
हसीं ख्याल ने गुनगुनाया है
इकरार है या इजहार , खुदा जाने
कि फिर से बारिश ने आज
तपती ज़मीं को जिंदगी दी है
अंजामे उल्फत को अबतलक,
इस जहाँ में किसने जाना है,
की उनके बरमला इश्क में
हमने अपनी रज़ा दी है !!
प्रवीश दीक्षित ' तल्ख़'
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