Saturday, November 21, 2009

तल्खी


















बिगडती है ,बनती है ,बन के फिर बिगड़ जाती है, तकदीर
लगता है खुदा को अक्सर , अब ये 'खेल' भाया है।

जिंदगी को बज़्म बनाने की हवस में ,
बदन को मशीं बना दिया मैंने ।

निशां छु भी न सका मंजिलों का ,अब तलक ,
कि मुसाफिर ये किस राह का हो गया हूँ मैं।

मैं दर्द का शैदाई और दुआओं का मुजरिम ,
कि मेरी तल्खी ख़ुद मुझसे है , खुदाई से नही।

अपनी ही बेबसी पे घुटता रहा हूँ मैं ,
कि अक्सर हर लम्हे से डरता रहा हूँ मैं।

अब ना रहा हालातों पे कोई अख्तियार मेरा ,
कि बदकिस्मती ,बेतकल्लुफ हो गई जिंदगी के साथ।



प्रवीश दीक्षित'तल्ख़'

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