बिगडती है ,बनती है ,बन के फिर बिगड़ जाती है, तकदीर
लगता है खुदा को अक्सर , अब ये 'खेल' भाया है।
जिंदगी को बज़्म बनाने की हवस में ,
बदन को मशीं बना दिया मैंने ।
निशां छु भी न सका मंजिलों का ,अब तलक ,
कि मुसाफिर ये किस राह का हो गया हूँ मैं।
मैं दर्द का शैदाई और दुआओं का मुजरिम ,
कि मेरी तल्खी ख़ुद मुझसे है , खुदाई से नही।
अपनी ही बेबसी पे घुटता रहा हूँ मैं ,
कि अक्सर हर लम्हे से डरता रहा हूँ मैं।
अब ना रहा हालातों पे कोई अख्तियार मेरा ,
कि बदकिस्मती ,बेतकल्लुफ हो गई जिंदगी के साथ।
प्रवीश दीक्षित'तल्ख़'
No comments:
Post a Comment