Sunday, September 13, 2009

धुआं सा आदमी

अजीब जानवर है , ये धुआं धुआं सा आदमी ,
लगी जो आग जिस्म में , तो नोचता है जिस्म को।
इक बदनुमा सा दाग है , इस कहकशां में आदमी ।
अजीब जानवर है ......


जब भागती है जिन्दगी, तो रेंगता है आदमी ।
ख्वाहिशों की चाह में , फिसलता है आदमी
ठोकरों में वक़्त की , जो खेलता वो आदमी ।
अजीब जानवर है .......

आंधियां थी जब चलीं , सहम गया वो सहर में
टिमटिमा गया है जो , वो दिया है आदमी ।
स्वार्थों की होड़ में , जो जी गया वो आदमी ,

अजीब जानवर है ये धुआं धुआं सा आदमी।

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